रविवार, 5 दिसंबर 2010

ग़ज़ल...बारिश में सर झुकाए हुए तन को मोड़ के

बारिश में सर झुकाए हुए तन को मोड़ के 
बैठा है इक परिन्द परों को सिकोड़ के 


दो दिन में आ न जाए कहीं फ़िक्र पर ज़वाल 
रक्खा नहीं है आपने ये खेत गोड़ के


उस यार-ए-बेवफा से जुदा क्या हुए कि बस
तन मन चला गया है मेरा साथ छोड़ के


तल्ख़ी मेरी ज़बान पे जमती नहीं कभी
पीता हूँ रोज़ नीम की पत्ती निचोड़ के


सदियों से चल रही है फ़ना और बक़ा की जंग
पीपल निकल रहा है मेरी छत को तोड़ के 


उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया 
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के 


आखों में बस गये थे बहुत से सुनहरे ख़्वाब 
मौत आई और जगा दिया शाने झिंझोड़ के


जोगी तुम्हारे ध्यान का बच्चा भी ख़ूब है 
मेले में आ गया है भरे घर को छोड़ के 


एहसासे जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया 
पछता रहा हूँ फूल से ख़ुशबू निचोड़ के