रविवार, 5 दिसंबर 2010

ग़ज़ल...बारिश में सर झुकाए हुए तन को मोड़ के

बारिश में सर झुकाए हुए तन को मोड़ के 
बैठा है इक परिन्द परों को सिकोड़ के 


दो दिन में आ न जाए कहीं फ़िक्र पर ज़वाल 
रक्खा नहीं है आपने ये खेत गोड़ के


उस यार-ए-बेवफा से जुदा क्या हुए कि बस
तन मन चला गया है मेरा साथ छोड़ के


तल्ख़ी मेरी ज़बान पे जमती नहीं कभी
पीता हूँ रोज़ नीम की पत्ती निचोड़ के


सदियों से चल रही है फ़ना और बक़ा की जंग
पीपल निकल रहा है मेरी छत को तोड़ के 


उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया 
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के 


आखों में बस गये थे बहुत से सुनहरे ख़्वाब 
मौत आई और जगा दिया शाने झिंझोड़ के


जोगी तुम्हारे ध्यान का बच्चा भी ख़ूब है 
मेले में आ गया है भरे घर को छोड़ के 


एहसासे जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया 
पछता रहा हूँ फूल से ख़ुशबू निचोड़ के










सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

ग़ज़ल..............तेज़ आंधी है, सायबान है क्या

तेज़ आंधी है, सायबान है क्या
मेरे हक़ में कोई बयान है क्या 


क्यों, ये लहजे में आग है कैसी 
पाँव के नीचे आसमान है क्या 


जिस्म अपना मैं छोड़ दूं लेकिन 
सोचता हूँ कोई मकान है क्या 


इस में इज़्ज़त भी है, शराफ़त भी 
यह गरीबों का ख़ानदान है क्या 


हर तलब को शिकस्त दी मैं ने 
यह हक़ीकत नहीं गुमान है क्या 


मुफलिसी खा गयी जवानी को 
इससे अच्छा कोई बयान है क्या 


तुझको यह भी नहीं हुआ मालूम 
तेरे मुंह में भी इक ज़बान है क्या 


जख्म छूने से ये हुआ महसूस 
तेरे होंटों में ज़ाफ़रान है क्या 


जंगलीपन नहीं गया अब तक  
मेरा भारत बहुत महान है क्या !!

रविवार, 22 अगस्त 2010

गजल...मजहब की किताबों से भी इरशाद हुआ मैं

मजहब की किताबों से भी इरशाद हुआ मैं
दुनिया तेरी तामीर में बुनियाद हुआ मैं

सैयाद समझता था रिहा हो न सकूंगा
हाथों की नसें काट के आजाद हुआ मैं

उरियां है मेरे शहर में तहजीब की देवी
मन्दिर का पुजारी था सो, बर्बाद हुआ मैं

मज़मून से लिखता हूँ कई दूसरे मजमूँ
और लोग समझते हैं कि नक्काद हुआ मैं                              

हर शख्स हिकारत से मुझे देख रहा है
जैसे किसी मजलूम की फरियाद हुआ मैं