शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

मुहब्बतों का सुरूर / नज़्म

मैं अपनी आँखें न बंद कर लूं तो क्या करूं अब 
जहां भी देखो, जिधर भी देखो 
वहीं हैं दैरो-हरम के झगड़े.
जिसे भी देखो वो अपने मज़हब को सबसे ऊंचा बता रहा है 
वो दूसरों के गुनाह हमको गिना रहा है, सुना रहा है.
उसे ख़बर ही नहीं है शायद 
हर एक मज़हब के रास्ते की है एक मन्ज़िल
वो सबका मालिक जो एक है पर 
न जाने उसके हैं नाम कितने,
सब उसकी महिमा को जानते हैं 
मगर न मानेंगे इसकी कसमें उठाए फिरते हैं जाने कब से.
वही है दैरो-हरम का मालिक 
तो मिल्कियत का वही मुहाफ़िज़ हुआ यक़ीनन
मगर ये ऐसा खुला हुआ सच 
कोई न समझे तो क्या करें हम?
पढ़े-लिखे और कढ़े हुए सब 
इस एक नुकते पे अपनी आँखों को बंद करके उलझ रहे हैं.
ख़ुदा, ख़ुदा है, वो सब पे क़ादिर है जब तो फिर क्यों 
तमाम खल्के-ख़ुदा को शक है.
वो चाह ले तो तमाम दुनिया को एक पल में मिटा के रख दे 
मगर वो मखलूक के दिलों में 
मुहब्बतों के चराग़ रोशन किए हुए है.
हवस-परस्ती में रास्ते से भटक गए हैं जो चंद इन्सां
वही तो अपनी शिकस्त ख़ुर्दा अना की ज़िद में 
अड़े हुए हैं.
वो नफ़रतों की तमाम फ़सलों को खून देने में मुन्हमिक हैं 
उन्हें पता भी नहीं कि उनका ये कारे-बेजा 
हमारी नस्लों को उनके वरसे में जंग देगा
तमाम इंसानियत की चीख़ें सुनेंगे हम-तुम 
ज़मीं पे क़ह्तुर्रिज़ाल होगा.
सो, ऐसा मंजर कभी न आए 
ख़ुदा-ए-बरतर 
दुआ है तुझ से 
हवस-परस्तों के तंग दिल को वसीअ कर दे 
कुदूरतों को मिटा के उन में भी नूर भर दे 
मुहब्बतों का सुरूर भर दे, मुहब्बतों का सुरूर भर दे!

मिलन / नज़्म


प्रीतम से मिलने को व्याकुल 
हुई बावरी
मेरी आत्मा 
सुध-बुध भूल गई सब तन की
खोज रही बिछड़े प्रीतम को
आँखों में झाईं पड़ने से 
राह नज़र से दूर हुई है 
और जबान के छाले पी का 
नाम पुकार-पुकार बढे हैं 
पियु न आयो 
तन की चादर
जगह-जगह से चाक हुई पर 
रूह की बेचैनी तो देखो
उसे खबर ही नहीं बदन की 
चादर तो उतरेगी इक दिन
बिना उतारे 
कोई न मिल पाया जब पी से 
तो गम कैसा
मिलने से पहले
आमाल की पूंजी सारी जमआ करो और
बाक़ी सब सामन यहाँ का 
यहीं छोड़ दो
हवस तुम्हे जब देखे 
तो खुद शर्मा जाए
तपी हुई तन की भट्टी में
यही आत्मा
प्रीतम की अंगनाई में
जब पहुंचेगी तो रक्स करेगी
वही रक्स जो
सूफी मसलक की बुनियादों में शामिल है
वही रक्स जो महारास है
उसी रक्स की मेरी आत्मा को जुस्तजू है

पड़ाव / नज़्म

नई सदी में तरक्कियों की 
जो होड़ चारों तरफ लगी है 
ये होड़ मखलूक के लिए भली है
ये खोज आदम की है कि जिसने 
कदम रखे हैं जो चाँद ऊपर 
तो चाँद का वो हसीं तसव्वुर
जो शायरों ने हमें सुनाया था मुद्दतों तक 
हकीकतन वो फरेब साबित हुआ है जानां 
तरक्कियों ने हमें बताया
चिराग अपनी नज़र के नीचे 
तमाम जुल्मत को पालता है,
तरक्कियां अब फलक पे अपनी रिहाइशों की तलाश में हैं!
मगर हमारा सवाल ये है,
सभी मसाइल का हल तो पहले तलाश कर लें 
जमीं के ऊपर
फलक पे फिर आशियाँ बनाने की सोच लेंगे !
वही हैं खुशियाँ वही हैं गम 
तो जनाबे-आदम को आस्मां पर
सुकून कैसे मिलेगा जानां?
ये जो समझने की सोचने की
मिली है कूवत हमें जनम से 
 यही हमारी तरक्कियों की
 तहों में शामिल रही है लेकिन 
यही तो सारे फसाद की जड़ बनी हुई है!
हमारे जज्बे ही बंद राहों को खोलते हैं 
हमारे जज्बे हमारी राहों को गुम भी करते हैं
जिन्दगी में
यही तो वो खेल है जो
सदियों से चल रहा है जमीं के ऊपर
सभी मसाइल 
वसीअ होते रहे हैं अब तक
हमारे मसाइल के हल की कोई
सबील करना पड़ेगी खुद ही !
सुलझ गए फिर जो ये मसाइल 
जमीं पे अम्नो-अमान होगा
जमीं बहुत है अदम की खातिर 
तरक्कियां सब भली हैं लेकिन 
जमीं कम भी नहीं है तो फिर
हमें फलक पर 
पनाह लेने की कुछ जरूरत अभी नहीं है !!!

तिरियाक.... नज़्म

चहार सिम्त से उठाता है शोर धरती पर 
जिसे भी देखो वो अपना अलम उठाए है
गरज ये है कि उसे जो भी चाहिए मिल जाए
किसी का हक भी पड़े मारना तो गम कैसा
कोई जो बीच में आए तो साफ़ हो जाए
ये फिक्र वो है जो हर आदमी की चाहत है
अजीब हाल है इस अहद का यहाँ पर तो
कोई नहीं है कहीं हकपरस्त लोगों का !
कभी यहाँ भी मुहब्बत के फूल खिलते थे
किसी की फिक्र पे आती नहीं थी आंच कभी
यहाँ भी लोग सलीके से ज़ख्म सिलते थे
फजा में ज़हर नहीं था कहीं भी अब जैसा
रवां-दवां थी यहाँ ज़िंदगी की हर रौनक
मगर ये किसने तअस्सुब की फ़स्ल बोई है
कि जिससे फैले हैं नफ़रत के ये तमाम दरख़्त
फजा-ए-सहर जभी तो हुई है ज़हर-आलूद 
इसी की आग में झुलसे है नस्ले-इंसानी
इसी वबा का तो हमको इलाज करना है
ज़मीं पे बोयेंगे हम फिर मुहब्बतों के फूल
फ़ज़ा-ए-क़ल्ब में ईमां की रौशनी भरकर
हमीं हटायेंगे कालख की पर्त सीनों से
जो पाक दिल हों नज़र पाक हो ज़बां भी पाक
जगह न पाएगी फिर इस ज़मीं पे नापाकी
ज़बां पे शहद दिलों में ख़ुलूस होगा फिर
जगह न पाएंगे बुग्जो-हसद कहीं पर भी
अमल की आंच से पिघलेगी ये जमीई हुई बर्फ
हमें यकीन है अपने ख़ुलूस से हम लोग
हर एक ज़हर का तिरियाक ढूंढ ही लेंगे!!!!

जुस्तजू .... नज़्म

सहर तलक
कभी पहुंचू
ये जुस्तजू थी मेरी 
मगर
उम्मीद के दामन में भर गए कांटे
मैं इक चिराग हूँ 
जलना मेरा मुकद्दर है
मैं खुद तो जलता हूँ
लेकिन मेरे उजाले में 
तमाम चेहरों को पहचानती है ये दुनिया
नकाब उठाते हैं शब् भर मेरे उजाले में
फना की सिम्त बढाता हूँ मैं कदम हर पल
है मेरे दिल में भी ख्वाहिश
अज़ल के दिन से ही
मुझे कभी तो बका-ए-दवाम हो हासिल
ये जो सहर की मुझे जुस्तजू है मुद्दत से
इसे भी दिल से कभी तो निकल दे या रब!!!

उदास चेहरे.... नज़्म

उदास चेहरों को देखता हूँ
तो दिल में उठाती है हूक मेरे
उदास चेहरों को मेरे मालिक
जो गम दिए हैं तो क्यों दिए हैं?
बनाने वाले ने सबके चेहरों को 
ताजगी की चमक अता की है
पहले दिन से
दर-असल चेहरों पे जो उदासी 
की खुश्क चादर पड़ी हुई है 
ये सिर्फ चेहरों के मालिको की
तमाम महरूमियों का इक इश्तेहार बनकर चमक रही हैं 
इसे उतारो तो फिर दमकते हुए वो सारे हसीन चेहरे 
उभर के आएँगे
असल सूरत में लौटकर फिर!
खुला ये हम पर अमल से अपने 
बना भी सकते हैं खुद को लेकिन 
हमें हकीक़त पता तो होवे!
हमारा चेहरा तो आइना है 
इस आईने में 
अमल भी रद्दे-अमल भी अक्सर दिखाई देता है मुद्दतों तक
तो हमको अपने अमल से पहले 
ये सोचना है, कि किसका कैसा असर पडेगा 
हमें ये हक ही नहीं हम अपने 
दमकते चेहरों की ताजगी को अमल से छीनें !
अगरचे हमने ये तय किया तो 
उदासियों का वजूद हमको नहीं मिलेगा
हर एक चेहरा ख़ुदा की कारी गरी का ज़िंदा 
गवाह होगा 
कोई मुलम्मा न पर्त कोई नहीं मिलेगी 
शगुफ्तगी के गुलाब महकेंगे इस जमीं पर!!!

इन्किशाफ़ / नज़्म

सुने हैं मैंने 
अंधेरों की खानकाह के गीत
बहुत दिनों से उजालो को 
कैद करने की 
वो कोशिशों में लगे हैं तो क्या किया जाए
जो अपना अक्स तलक
देख ही नहीं सकते 
वो दूसरे की छवि देखने को आतुर हैं 
अजीब हैं ये अंधेरों की कोशिशें जानां
अन्धेरा खुद भी तो अपना वजूद रखता है
ये इन्किशाफ नहीं हो सका अभी उस पर 
इसी के गम में हिरासां 
न जाने कब से वो
अब एहतेजाज भी करने लगा उजाले का
ये एहतेजाज जरूरी नहीं
मगर जानां
उसे ये जा के बताए भी तो बताए कौन?
कि ये उजाला ही उसका बड़ा मुहाफ़िज़ है 
सुकोद्ता है जो परों को शाम होते ही
गरज ये है कि अन्धेरा वजूद में आए
मगर अँधेरे की आँखें नहीं हुआ करतीं
ये बात
उसको भला कौन जा के समझाए !!!

ग़ज़ल .....कई सूरज कई महताब रक्खे

कई सूरज कई महताब रक्खे
तेरी आँखों में अपने ख्वाब रक्खे

हरीफों से भी हमने गुफ्तगू में
अवध के सब अदब-आदाब रक्खे

हमारे वास्ते मौजे-बला ने
कई साहिल तहे-गिर्दाब रक्खे

उभरने की न मोहलत दी किसी को
चरागों ने अँधेरे दाब रक्खे

ग़ज़ल..दर्दे-दिल जान का आजार है मैं जानता हूँ

दर्दे-दिल जान का आजार है मैं जानता हूँ
 और अल्लाह मददगार है मैं जानता हूँ

मंजरे-सुब्ह शफकजार है मैं जानता हूँ
ये तुम्हारा रूखे-अनवार है मैं जानता हूँ

मैं बिना कलमा पढ़े भी तो मुसलमां ठहरा 
हाँ मेरे दोश पे जुन्नार है मैं जानता हूँ 

एक-इक हर्फ़ महकने लगा फूलों की तरह
ये तेरी गर्मी-ए-गुफ्तार है मैं जानता हूँ

ढूँढते हैं मेरी आँखों में तुझे शहर के लोग
तेरा मिलना भी तो दुश्वार है मैं जानता हूँ

रेहन रक्खे जो मेरी कौम के मुस्तकबिल को
वो मेरी कौम का सरदार है मैं जानता हूँ

गजल....गरीबी जब मिलन की आस में अड़चन लगाती है

गरीबी जब मिलन की आस में अड़चन लगाती है 
वो बिरहा में झुलसते जिस्म पर चन्दन लगाती है
 
महकती है बदन में उसके हिन्दुस्तान की खुशबू
कि वो तालाब की मिट्टी से जब उबटन लगाती है

 जवानी देखती है खुद को रुसवाई के दर्पण में
 फिर अपने आप पर दुनिया के सब बंधन लगाती है

कुंवारी चूड़ियों की दूर तक आवाज आती है
वो जब चौका लगती है, वो जब बासन लगाती है

उदासी में तेरी यादों की चादर ओढ़कर अक्सर
मेरी तन्हाई अपनी आँख में आंजन लगाती है

कभी तो आईना देखे तेरे दिल में भरी नफरत
हमेशा दूसरों के वास्ते दरपन लगाती है

गजल...खुद अपने दिल को हर एहसास से आरी बनाते हैं

खुद अपने दिल को हर एहसास से आरी बनाते हैं
जब इक कमरे में हम कागज़ की फुलवारी बनाते हैं

गज़ल के वास्ते इपनी जमीं हम किस तरह ढूंढें 
जमीनों के सभी नक़्शे तो पटवारी बनाते हैं

तलाशी में उन्हीं के घर निकलती है बड़ी दौलत 
जो ठेकेदार हैं और काम सरकारी बनाते हैं 

इन्हें क्या फर्क पड़ता है कोई आए कोई जाए 
यही वो लोग हैं जो राग-दरबारी बनाते हैं

जरूरत फिर हवस के खोल से बाहर निकल आई 
कि अब माली ही खुद गुंचों को बाजारी बनाते हैं.

गजल....ख़ुदा ख़ुद मेरे दिल के अंदर मकीं है।

ख़ुदा ख़ुद मेरे दिल के अंदर मकीं है।
मगर मुझको इसकी ख़बर तक नहीं है।।

इसी इक सबब से वो पर्दानषीं है।।
मियां दीद की ताब हम में नहीं है।।

न जाने ये कैसे सफ़र में है दुनिया।
जहां से चली थी वहीं की वहीं है।।

निकल आएंगे कुछ मुहब्बत के पौदे।
के भीगी हुई मेरे दिल की ज़ है।।

हमारा-तुम्हारा मिलन होगा इक दिन।
तुम्हें भी यकीं है हमें भी यकीं है।।

ये माना बहुत ख़ूबसूरत है दुनिया।
मगर मुझको इसकी तलब तो नहीं है।।

वो है लामकां उसकी अज़्मत न पूछो।
हुकूमत तो उसकी कहीं से कहीं है।।

पड़े मेरी मां के क़दम जिस ज़्ामीं पर।
मेरे वास्ते वो तो ख़ुल्दे-बरीं है।।

हमारे लिए है वही मन्नो-सलवा।
मिली जो भी मेहनत से नाने-जवीं है।।

अम्न की दीवार में दर हो गये

अम्न की दीवार में दर हो गये
 जंग-जू जब से कबूतर हो गये

आज फिर पानी गले तक आ गया
हाथ अपने आप ऊपर हो गये

मैं भिकारी हो गया तो क्या हुआ
मांगने वाले तवंगर हो गये

दीद-ए-नमनाक से आंसू गिरे
और चकनाचूर पत्थर हो गये

शौक इन आँखों का है सारा कुसूर
जागते ही ख्वाब बेघर हो गये

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

बड़ी तफरीक पैदा हो गयी है हर घराने में


बड़ी तफरीक पैदा हो गयी है हर घराने में
ज़रा सी देर लगती है यहाँ दीवार उठाने में 

ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता 
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में

न जाने लोग इस दुनिया में कैसे घर बनाते हैं,
हमारी जिन्दगी तो कट गयी नक्शा बनाने में 

बलंदी से उतर कर सब यहाँ तक़रीर करते हैं
किसी को याद रखता है कोई अपने जमाने में 

मुहब्बत है तो सूरज की तरह आगोश में ले लो
 ज़रा सी देर लगती है उसे धरती पे आने में

टूट जाती है हसरते- तामीर

ग़ज़ल

टूट जाती है हसरते- तामीर 
जब किसी का मजार देखते हैं 

कोई सरकार हो मगर खादिम 
सिर्फ दिन भर शिकार देखते हैं

रोज़ बुझते दियों की आँखों में 
जिन्दगी का खुमार देखते हैं

लोग लहजे की धार देखते हैं
हम तो लफ्ज़ों की मार देखते हैं

छाँव के शहर की फसीलों पर 
धूप के इश्तिहार देखते हैं -

जिंदगी वो हसीं औरत है
हम जिसे बार- बार देखते हैं - 

ग़ज़ल...शहर आदिल है तो मुंसिफ की जरूरत कैसी



शहर आदिल है तो मुंसिफ की जरूरत कैसी 
कोई मुजरिम ही नहीं है तो अदालत कैसी

काम के बोझ से रहते हैं परीशां हर वक्त 
आज के दौर के बच्चों में शरारत कैसी 

हमको हिर-फिर के तो रहना है इसी धरती पर 
हम अगर शहर बदलते हैं तो हिजरत कैसी 

मैंने भी जिसके लिए खुद को गंवाया बरसों 
वो मुझे ढूँढने आ जाए तो हैरत कैसी 

जिसमें मजदूर को दो वक़्त की रोटी न मिले 
वो हुकूमत भी अगर है तो हुकूमत कैसी

ग़ज़ल...अजमतों के बोझ से घबरा गए


.अजमतों के बोझ से घबरा गए 
सर उठाया था कि ठोकर खा गए 

ले तो आए हैं उन्हें हम राह पर 
हाँ, मगर दांतों पसीने आ गए 

भूख इतनी थी कि अपने जिस्म से 
मांस खुद नोचा, चबाया, खा गए 

कैदखाने से रिहाई यूं मिली 
हौसले जंजीर को पिघला गए 

बज गया नक्कारा-ए-फ़तहे-अजीम 
जंग से हम लौट कर घर आ गए 

इक नई उम्मीद के झोंके मेरे 
पाँव के छालों को फिर सहला गए 

उन बुतों में जान हम ने डाल दी 
दश्ते-तन्हाई में जो पथरा गए.

छीन ली जब ख्वाहिशों की ज़िन्दगी
पाँव खुद चादर के अंदर आ गए

ग़ज़ल.....नख्ले-उम्मीद में हैरत के समर आ गए हैं



..नख्ले-उम्मीद में हैरत के समर आ गए हैं
घर जो हम खाना-बदोशों को नज़र आ गए हैं 

भूक ने कर दिए हैं मेरी अना के टुकडे 
सिर्फ चंदा नहीं तारे भी नज़र आ गए हैं 

तू जो बिछड़ा था तो फिर तेज हुई थी धड़कन 
फिर मुझे याद तेरे दीद-ए-तर आ गए हैं 

फ़ायदा कुछ तो हुआ है तेरी सोहबत का मुझे
सोच के जिस्म में उम्मीद के पर आ गए हैं 

मक्तले -जां का नज़ारा है बहुत ही दिलसोज
देखते-देखते आखों में शरर आ गए हैं
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