ग़ज़ल
कोई सरकार हो मगर खादिम
सिर्फ दिन भर शिकार देखते हैं
रोज़ बुझते दियों की आँखों में
जिन्दगी का खुमार देखते हैं
लोग लहजे की धार देखते हैं
हम तो लफ्ज़ों की मार देखते हैं
छाँव के शहर की फसीलों पर
धूप के इश्तिहार देखते हैं -
जिंदगी वो हसीं औरत है
हम जिसे बार- बार देखते हैं -
टूट जाती है हसरते- तामीर
जब किसी का मजार देखते हैं कोई सरकार हो मगर खादिम
सिर्फ दिन भर शिकार देखते हैं
रोज़ बुझते दियों की आँखों में
जिन्दगी का खुमार देखते हैं
लोग लहजे की धार देखते हैं
हम तो लफ्ज़ों की मार देखते हैं
छाँव के शहर की फसीलों पर
धूप के इश्तिहार देखते हैं -
जिंदगी वो हसीं औरत है
हम जिसे बार- बार देखते हैं -
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