बड़ी तफरीक पैदा हो गयी है हर घराने में
ज़रा सी देर लगती है यहाँ दीवार उठाने में ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में
न जाने लोग इस दुनिया में कैसे घर बनाते हैं,
हमारी जिन्दगी तो कट गयी नक्शा बनाने में
बलंदी से उतर कर सब यहाँ तक़रीर करते हैं
किसी को याद रखता है कोई अपने जमाने में
मुहब्बत है तो सूरज की तरह आगोश में ले लो
ज़रा सी देर लगती है उसे धरती पे आने में
2 टिप्पणियां:
ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में
क्या खूबसूरत शेर है...वाह
.
आदरणीय संजय जी
सस्नेहाभिवादन !
संयोग से अंतर्जाल-भ्रमण करते हुए आपके यहां पहुंचा हूं …
सच मानें आपका ही हो'कर रह गया हूं …
:)
आपकी कई ग़ज़लें पढ़ीं … हृदय को तृप्ति मिली ।
प्रस्तुत ग़ज़ल भी बेहद पसंद आई … तमाम अश्'आर काबिले-ता'रीफ़ हैं ।
ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में
मैं सोचता हूं शे'र शायद और भी दमदार होता अगर कहते -
ये ऐसा कर्ज है जो तू अदा कर ही नहीं सकता
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में
:))
… अधिक गंभीरता से न लें …
बस, ऐसा मेरा सोचना है ।
हार्दिक शुभकामनाओं सहित…
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