बारिश में सर झुकाए हुए तन को मोड़ के
बैठा है इक परिन्द परों को सिकोड़ के
दो दिन में आ न जाए कहीं फ़िक्र पर ज़वाल
रक्खा नहीं है आपने ये खेत गोड़ के
उस यार-ए-बेवफा से जुदा क्या हुए कि बस
तन मन चला गया है मेरा साथ छोड़ के
तल्ख़ी मेरी ज़बान पे जमती नहीं कभी
पीता हूँ रोज़ नीम की पत्ती निचोड़ के
सदियों से चल रही है फ़ना और बक़ा की जंग
पीपल निकल रहा है मेरी छत को तोड़ के
उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के
आखों में बस गये थे बहुत से सुनहरे ख़्वाब
मौत आई और जगा दिया शाने झिंझोड़ के
जोगी तुम्हारे ध्यान का बच्चा भी ख़ूब है
मेले में आ गया है भरे घर को छोड़ के
एहसासे जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया
पछता रहा हूँ फूल से ख़ुशबू निचोड़ के
बैठा है इक परिन्द परों को सिकोड़ के
दो दिन में आ न जाए कहीं फ़िक्र पर ज़वाल
रक्खा नहीं है आपने ये खेत गोड़ के
उस यार-ए-बेवफा से जुदा क्या हुए कि बस
तन मन चला गया है मेरा साथ छोड़ के
तल्ख़ी मेरी ज़बान पे जमती नहीं कभी
पीता हूँ रोज़ नीम की पत्ती निचोड़ के
सदियों से चल रही है फ़ना और बक़ा की जंग
पीपल निकल रहा है मेरी छत को तोड़ के
उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के
आखों में बस गये थे बहुत से सुनहरे ख़्वाब
मौत आई और जगा दिया शाने झिंझोड़ के
जोगी तुम्हारे ध्यान का बच्चा भी ख़ूब है
मेले में आ गया है भरे घर को छोड़ के
एहसासे जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया
पछता रहा हूँ फूल से ख़ुशबू निचोड़ के
14 टिप्पणियां:
उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के
Fantastic!
तल्ख़ी मेरी ज़बान पे जमती नहीं कभी
पीता हूँ रोज़ नीम की पत्ती निचोड़ के
अत्यंत सुन्दर रचना...
साधुवाद स्वीकार करें.
उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के
क्या बात है !
बहुत ख़ूब !
उम्दा शायरी !
सदियों से चल रही है फ़ना और बक़ा की जंग
पीपल निकल रहा है मेरी छत को तोड़ के
वाह वाह...कमाल का शेर
एहसासे जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया
पछता रहा हूँ फूल से ख़ुशबू निचोड़ के
बहुत उम्दा.
तल्ख़ी मेरी ज़बान पे जमती नहीं कभी
पीता हूँ रोज़ नीम की पत्ती निचोड़ के
उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के
खूबसूरत अशआर...सुंदर ग़ज़ल...बहुत खूब
जोगी तुम्हारे ध्यान का बच्चा भी ख़ूब है
मेले में आ गया है भरे घर को छोड़ के ...
बहुत खूबसूरत शेर ... लाजवाब ग़ज़ल ...
उस पर ही क़त्ल ए आम का इलज़ाम आ गया
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के
एहसास ए जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया
पछता रहा हूँ फूल से खुशबू निचोड़ के
एक बहुत ही जिम्मेदाराना कलाम !!
एक एक शेर शाईस्त्गी और पुख्तगी की मिसाल बन पडा है
ऐसे नायाब और मुश्किल काफिये
सोच पाना भी बहुत मुश्किल काम है
आपने तो बखूबी इस्तेमाल कर दिखाए .... वाह !!
तल्ख़ी मेरी ज़बान पे जमती नहीं कभी
पीता हूँ रोज़ नीम की पत्ती निचोड़ के
waah waah
उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के
bahut khoob
सदियों से चल रही है फ़ना और बक़ा की जंग
पीपल निकल रहा है मेरी छत को तोड़ के
waah waah...... kamaal
जोगी तुम्हारे ध्यान का बच्चा भी ख़ूब है
मेले में आ गया है भरे घर को छोड़ के ...
waah waah kya baat kahi hai..
एहसासे जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया
पछता रहा हूँ फूल से ख़ुशबू निचोड़ के
bahut shaandaar gazal kahi hai..
आज आपके ब्लॉग पर फिर से लौटा हूँ और मारे ख़ुशी के झूम रहा हूँ. भाई क्या गज़ब की गज़ल कही है आपने...वाह...वा...एक एक शेर मोतियों की तरफ नफासत से पिरोया है आपने...उलझन में हूँ किस शेर की तारीफ़ करूँ और किसे छोडूँ? इस गज़ल में मतले से मकते तक का सफ़र बेहद खूबसूरत है.
मतले के शेर को आपने नए मिजाज़ में ढाला है...एक ऐसी कहन है जो पहले कभी पढ़ी सुनी नहीं...बेमिसाल.
ये नया पन आपके इस शेर में भी बहुत खूब झलक रहा है:-
तल्ख़ी मेरी ज़बान पे जमती नहीं कभी
पीता हूँ रोज़ नीम की पत्ती निचोड़ के
"पीपल निकल रहा है मेरी छत को तोड़ के" को आपने एक यादगार मिसरा बना दिया है.
आज सच्चे मासूम इंसान की हालत इस शेर में आपने पूरी शिद्दत से उतारी है :-
उस पर ही क़त्ल-ए-आम का इल्ज़ाम आ गया
मिलता था जो सभी से बहुत हाथ जोड़ के
आपके ये दो शेर अपने साथ लिए जा रहा हूँ...क़िबला अगर ऍफ़.आई.आर. लिखवाने की इच्छा हो तो लिखवा सकते हैं...जेल जाना मंजूर है लेकिन इन शेरों को लौटना नहीं...
जोगी तुम्हारे ध्यान का बच्चा भी ख़ूब है
मेले में आ गया है भरे घर को छोड़ के
एहसासे जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया
पछता रहा हूँ फूल से ख़ुशबू निचोड़ के
सुभान अल्लाह...दुआ करता हूँ के आपकी कलम का ये जादू हम पढने वालों पर यूँ ही चलता रहे...आमीन.
नीरज
7/10
उम्दा ग़ज़ल
आपके लेखन में ताजगी है
हर शेर अलग प्लेटफार्म पर है लेकिन असरदार है
एहसासे जुर्म ने मुझे सोने नहीं दिया
पछता रहा हूँ फूल से ख़ुशबू निचोड़ के
आह ...क्या बात है संजय भाई
बहुत खूब
बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है आपने
बधाई
आभार
इतनी खुबसूरत ग़ज़ल है की तारीफ मै शब्द ही नहीं मिल रहें हर एक पंक्ति जेसे एक बात कह रही हो !
बहुत खूब मज़ा आ गया पड़ कर हमारी शुभ कामनाएं आपके लिए की आप एसे ही लिखतें रहें !
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