गुरुवार, 27 जनवरी 2011

ग़ज़ल....कुछ तो मिला है आँखों के दरिया खंगाल के




कुछ तो मिला है आँखों के दरिया खंगाल के
लाया हूँ इनसे फिक्र के मोती निकाल के

हमने भी ढूंढ ली है जमीं आसमान पर
रखना है हमको पाँव बहुत देखभाल के

बच्चा दिखा रहा था मुझे जिन्दगी का सच
कागज़ की एक नाव को पानी में डाल के

उम्मीद के दिए में भरा सांस का लहू 
जंगल सा एक ख्वाब का आँखों में पाल के

बुझते हुए दीयों को पिलाया है खूने-दिल 
मिलते कहाँ हैं लोग हमारी मिसाल के
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3 टिप्‍पणियां:

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

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सर ग़ज़ल की जगह ये आ रहा है ,please इसे ठीक कर दें

राज भाटिय़ा ने कहा…

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बहुत सुंदर भाषा हे जी, लेकिन कोन सी भाषा हे यह तो बता दे?

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

@ आद. राज भाटिया जी ये कृष्णा फ़ोन्ट है
और यूनिकोड में ग़ज़ल यूं है-
हर शख्स कर रहा है यहां घात आजकल॥
दिन भी लगे है मुझको सियह रात आजकल॥
बदले हुए हैं शहर के हालात आजकल॥
हर आदमी को चाहिए खैरात आजकल॥
जर्बें लगी हैं इतनी नए पन की होड में ।
खुलते नहीं ग़ज़ल के तिलिस्मात्‌ आजकल॥
सारे हिजाब तोड रही है जदीदियत।
बढने लगे हैं मुल्क में इस्कात आजकल॥
इससे बड़ा अब और अलमिया न पूछिए।
ज़िन्दा हैं ज़हर पी के भी सुकरात आजकल॥
तुमको कहीं सुकूं न मिलेगा हवसज़दों
लौटा रहीं हैं लडकियां बारात आजकल॥
लिखने लगे हैं वो भी बराबर मुरासिले ।
जिनपे हुई है इल्म की बरसात आजकल॥
मंडी में अब ज़मीर फ़रोशों की धूम है।
शहरे अदब में हैं ये फुतूहात आजकल॥
कितनी बलंदियों से उतारा गया हमें।
बौने भी कर रहे हैं यही बात आजकल॥
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बहुत अच्छी ग़ज़ल...हर शेर बेहतरीन