शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

गजल...खुद अपने दिल को हर एहसास से आरी बनाते हैं

खुद अपने दिल को हर एहसास से आरी बनाते हैं
जब इक कमरे में हम कागज़ की फुलवारी बनाते हैं

गज़ल के वास्ते इपनी जमीं हम किस तरह ढूंढें 
जमीनों के सभी नक़्शे तो पटवारी बनाते हैं

तलाशी में उन्हीं के घर निकलती है बड़ी दौलत 
जो ठेकेदार हैं और काम सरकारी बनाते हैं 

इन्हें क्या फर्क पड़ता है कोई आए कोई जाए 
यही वो लोग हैं जो राग-दरबारी बनाते हैं

जरूरत फिर हवस के खोल से बाहर निकल आई 
कि अब माली ही खुद गुंचों को बाजारी बनाते हैं.

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