शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

गजल....ख़ुदा ख़ुद मेरे दिल के अंदर मकीं है।

ख़ुदा ख़ुद मेरे दिल के अंदर मकीं है।
मगर मुझको इसकी ख़बर तक नहीं है।।

इसी इक सबब से वो पर्दानषीं है।।
मियां दीद की ताब हम में नहीं है।।

न जाने ये कैसे सफ़र में है दुनिया।
जहां से चली थी वहीं की वहीं है।।

निकल आएंगे कुछ मुहब्बत के पौदे।
के भीगी हुई मेरे दिल की ज़ है।।

हमारा-तुम्हारा मिलन होगा इक दिन।
तुम्हें भी यकीं है हमें भी यकीं है।।

ये माना बहुत ख़ूबसूरत है दुनिया।
मगर मुझको इसकी तलब तो नहीं है।।

वो है लामकां उसकी अज़्मत न पूछो।
हुकूमत तो उसकी कहीं से कहीं है।।

पड़े मेरी मां के क़दम जिस ज़्ामीं पर।
मेरे वास्ते वो तो ख़ुल्दे-बरीं है।।

हमारे लिए है वही मन्नो-सलवा।
मिली जो भी मेहनत से नाने-जवीं है।।

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