मंगलवार, 14 अगस्त 2012

बड़ी तफरीक पैदा हो गयी है हर घराने में


बड़ी तफरीक पैदा हो गयी है हर घराने में
ज़रा सी देर लगती है यहाँ दीवार उठाने में 

ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता 
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में

न जाने लोग इस दुनिया में कैसे घर बनाते हैं,
हमारी जिन्दगी तो कट गयी नक्शा बनाने में 

बलंदी से उतर कर सब यहाँ तक़रीर करते हैं
किसी को याद रखता है कोई अपने जमाने में 

मुहब्बत है तो सूरज की तरह आगोश में ले लो
 ज़रा सी देर लगती है उसे धरती पे आने में

2 टिप्‍पणियां:

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में
क्या खूबसूरत शेर है...वाह

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

.

आदरणीय संजय जी
सस्नेहाभिवादन !
संयोग से अंतर्जाल-भ्रमण करते हुए आपके यहां पहुंचा हूं …
सच मानें आपका ही हो'कर रह गया हूं …
:)

आपकी कई ग़ज़लें पढ़ीं … हृदय को तृप्ति मिली ।

प्रस्तुत ग़ज़ल भी बेहद पसंद आई … तमाम अश्'आर काबिले-ता'रीफ़ हैं ।
ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में


मैं सोचता हूं शे'र शायद और भी दमदार होता अगर कहते -

ये ऐसा कर्ज है जो तू अदा कर ही नहीं सकता
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में
:))
… अधिक गंभीरता से न लें …
बस, ऐसा मेरा सोचना है ।

हार्दिक शुभकामनाओं सहित…