शनिवार, 3 नवंबर 2012

पड़ाव

पड़ाव
मैं ज़र्द पत्तों से
ज़िन्दगी का सबक़ न सीखूं तो क्या करूं अब?
ये मेरी फ़िक्री सलाहियत का इक इम्तेहां नहीं तो ये और क्या है?
ये ज़र्द पत्ते जो रास्ते में ज़मीं के तन पर पड़े हुए हैं,
ये ज़र्द पत्ते,
कभी शजर के जवां बदन पर सजे हुए थे, टंके हुए थे,
जवां उमंगों से, हसरतों से भरे हुए थे,
हवा के बहते हुए समन्दर में खेलते थे,
तमाम मौसम की सख्तियों में किलोल करते थे, झेलते थे.
बहार का हुस्न इनके लबों की जुंबिश पे मुन्हसिर था.
शुआ-ए-उम्मीद फड़क के इनकी
जवां उमंगों को अपने लहू से सींचती थी
और इनके जिस्मों की थरथराहट को अपने सीने में भींचती थी
मगर ये मौसम भी मेहमां था कुछ इक दिनों का.
बस एक मुद्दत के बाद ऐसा हुआ कि इक दिन
ये ज़र्द पत्ते, शजर के तन से जुदा हुए तो किसी ने दिल का न हाल पूछा
ज़मीं ने इनको गले लगाया, पनाह भी दी.
ये ज़र्द पत्ते
अब अपने अगले सफर से पहले पड़ाव में हैं.

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